अब तो यह मन का काम है/ प्रियांशी
आजकल अपने घर ख़र्च और अपनी ज़रूरत को पूरा करने के लिए ज़्यादातर महिलाओं को काम करना पड़ रहा है। ऐसी ही महिलाओं में एक हैं दयावती जो कि एक नंबर के चौड़े रोड के किनारे अपनी दुकान के सामने बैठकर बाँस की चटाइयाँ बनाती हैं। उनके आसपास बाँस की चटाई बनाने वाली और भी कई दुकानें हैं। ऐसे ही कुछ दुकानें दूसरी साइड में भी है।
दयावती मंझले कद की है, और उनकी बनावट भारी है। जब वह काम करती है तो उनका हाथ काफ़ी फुर्ती से चलता है। उनका कहना है कि अगर ग्यारह बजे तक यहाँ पर पहुँच जाओ तो ठीक रहता है। इसलिए मैं सुबह जल्दी उठती हूँ, क्योंकि अब मेरी सास से तो घर का काम होता नहीं है। उनकी उम्र काफी हो चुकी है। जिसकी वजह से मुझे जल्दी घर का काम ख़त्म करके, यहाँ पर आना होता है। मेरी शादी के पहले से मेरी सास और पति यह काम किया करते थे। यह काम करते-करते हमें क़रीब चालीस साल हो गए हैं। फिर कुछ देर वह खामोश रहीं क्योंकि वह अपने हाथों से चटाई की डंडिया सही कर रही थी।
शादी की शुरूआत में अक्सर मैं सुबह और शाम की चाय देने दुकान पर आया करती थी। और इस काम को मैंने अपनी सास और अपने पति को लगातार करते हुए भी देखा, पर मैंने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। कुछ सालों बाद मेरी सास की उम्र काम करने को नहीं रह गईं । उनकी आँखें भी ख़राब हो गई फिर उन्हें चश्मा लग गया। चश्मा लगने के बावजूद उन्हें धुँधला दिखाई देने लगा। अब यह काम करने में उन्हें काफ़ी परेशानी होती थी। यह काम आँखों और हाथों का था इसलिए अब उसको कर भी नहीं पाती थी। उनके हाथ और पैरों में दर्द भी होने लगा था। पैर मोड़ कर बैठने से उनके पैरों में सूजन भी आ गई थी। आखिरकार यह काम उन्हें छोड़ना पड़ा।
कुछ साल तक यह काम मेरे पति ने अकेले ही सँभाला पर उन्हें बहुत दिक़्क़त आ रही थी। इतनी कमाई नहीं थी जो काम पर दो-तीन लोगों को रख ले। सामान बाज़ार से लाना पड़ता था। जिस दिन बाज़ार से सामान लाना पड़ता, उस दिन काम की छुट्टी हो जाती। फिर मैंने सोचा क्यों ना यह काम मैं भी सीख लूँ और अपने पति के साथ हाथ बँटाऊँ। उन्हें तो यह काम अकेले करने में काफ़ी ज़्यादा परेशानी होती होगी। उस समय मेरे बच्चे भी छोटे थे, यह काम आखिर कैसे कर पाऊँगी। फिर मेरी सास ने कहा कि कोई बात नहीं बहू, तू यह काम शुरू कर, मैं बच्चों को सँभाल लूँगी। फिर उसके बाद मैं घर का सारा काम करके बच्चों के पापा के साथ काम पर चली जाया करती थी। वहाँ जो बाक़ी औरतें चटाइयाँ बना रही होती थी, वे मुझे सिखाती कि डंडिया कैसे लगानी है। कैसे धागे में गाँठ मारनी है। वे मुझे अलग-अलग डिजाइन बनाना भी सिखातीं। पटपड़गंज और मयूर विहार में लोग अपने घर की खिड़कियों और दरवाजों पर
बाँस की चटाइयाँ ही लगाते थे। इस कारण ऑर्डर्स काफ़ी आते थे।
मुझे काम सीखने की काफ़ी ज़्यादा जिज्ञासा रहती कि आज मैं कुछ नया सीखूँगी। मेरी सास घर पर रहा करती थी और मैं अपने पति के साथ काम पर जाती थी। उस वक़्त भले ही मैं इस काम को ज़्यादा टाइम नहीं दे पाती थी, पर मैं काम बड़े ही ध्यान से सीख रही थी। कुछ दिनों तक ऐसा ही चलता रहा। उसके बाद जब मैं चटाई बनानी लगी और मेरा हाथ धीरे-धीरे साफ़ हो गया। फिर मैं अपने पति के साथ इस काम को ज़्यादा टाइम देने लगी। उनके साथ बाँस लेने मैं बाज़ार भी जाने लगी ताकि मैं भी कभी अकेले जाकर माल ला सकूँ।
कई सालों तक सुबह जल्दी उठकर मैं घर का सारा काम कर लिया करती। पर शाम को मैं जल्दी आया करती थी, क्योंकि रात का खाना मुझे ही बनाना पड़ता था। कुछ दिन तक तो सब ठीक चलता रहा। पर अचानक कुछ सालों बाद मेरे पति के पैर में फैलेरिया हो गया, उनका चलना फिरना मुश्किल हो गया। बस वह घर में ही बैठे रहते थे। कभी-कभी सहारे से वह किसी तरह दुकान पर आ जाया करते थे। अब हमें घर का ख़र्चा तो निकालना ही था। इसलिए इस काम पर मैं अकेले ही आया करती थी। मैं ख़ाली समय बैठकर कई बार सोचा करती थी कि क्यों ना मैं दूसरा काम शुरू कर लूँ? मैं अकेले कैसे क्या करूँगी? लेकिन मेरे घरवालों ने मुझे हिम्मत दी और कहा यह काम तुमने सीख भी लिया है। अगर अब तुम इस काम को करो तो तुम्हारा हाथ भी अच्छा साफ़ हो जाएगा। और अगर तुम दूसरा काम शुरू करोगी तो उसके लिए और पैसे भी होने चाहिए। इसलिए मैंने यह काम जारी रखा। पर जब मैं काम पर होती, तो मुझे अपने घर की फिक्र रहती। बीच-बीच में मैं अपने घर पर जाती भी रहती क्योंकि मुझे अपने पति को दवा भी देनी होती थी।
धीरे-धीरे मैंने दो-तीन औरतों को काम पर लगा लिया था। अकेला यह काम नहीं हो सकता था। उन औरतों को मैं दिहाड़ी देने लगी। और जो आदमी डंडी काटता है, उसे भी एक बाँस के लिए तीन सौ रूपये देने पड़ते हैं। उसे भी काफ़ी ज़्यादा मेहनत करनी पड़ती है। वह बाँस को छीलकर उनकी डंडिया बनाता है, और वह भी साइज के मुताबिक।
पति के बगैर कुछ दिनों तक मुझे अकेले काम करना अच्छा नहीं लगा। फिर धीरे-धीरे उन औरतों के साथ मेरा मन लगने लगा। इस काम से मेरे इतने आमदनी हो ही जाती है जिससे घर का किराया और राशन पानी निकल आए। पर अब इन मौसम को झेलना मेरे लिए परेशानी हो गई है। गर्मी के मौसम में तपिश निकलती है वह भी ज़मीन से। अगर हम चादर के ऊपर दो रुई से भरी गद्दियाँ लगाकर भी बैठते हैं, तब भी बहुत गरम-गरम लगता है। ऊपर से गर्मियों में इतनी लू चलती है कि कई बार तो हम बीमार भी हो जाते हैं। ऊपर से साड़ी बाँधने से और भी गर्मी लगती है। मैं सूट पहनती नहीं हूँ, इसलिए मुझे हमेशा साड़ी में ही रहना पड़ता है। और अब तो नज़र का काम करते-करते मेरी आँखें तक पीली हो गई है।
ऊपर से पैर मोड़ के बैठने पर कमर में दर्द हो जाता है। अगर एक बार बैठ गए तो फिर उठा भी नहीं जाता। पर कुछ भी कहो गर्मी के मौसम में काम तो सही चलता है। लोग गर्मी से बचने के लिए यह चटाइयाँ लेते हैं। काफ़ी ज़्यादा ऑर्डर्स आते भी हैं, जिसे हम जल्दी से जल्दी बनाने का प्रयास करते हैं। इस मौसम में यहाँ पर जो दो-तीन औरतें काम करती हैं, वे भी छुट्टी लेकर गाँव चली जाती है। मुझे ज़्यादा काम करना पड़ता है।
बरसात का मौसम फिर हर जगह कीचड़ ही कीचड़। बरसात के मौसम में तो हमारी गुमटी के अंदर भी कहीं ना कहीं से पानी आ ही जाता है। इसकी वजह से हमारी चटाइयाँ गीली होने लगती है। और, वह बिकना कम हो जाती है। ऊपर से बाँस की डंडिया भी सील जाती है। जिससे वह टेढ़ी हो जाती है। उससे चटाइयाँ बनना काफ़ी मुश्किल हो जाता है। बरसात के मौसम में तो बस इसी का इंतज़ार रहता है कि जल्दी से धूप निकले और हम अपना काम करना शुरू करें। अगर कभी अचानक से बारिश आ गई तो हमें तुरंत उठकर सारा सामान अंदर रखना पड़ता है। ऊपर से बरसात के मौसम में काफ़ी ज़्यादा किचकिच होती है। जिसकी वजह से बरसात के मौसम में काम करने का बिल्कुल मन नहीं करता। और सर्दी का मौसम का तो पूछो ही मत। एकदम हाथ सिकुड़ जाते हैं, और पैर भी झनझनाने लगते हैं। ऊपर से यह पूरा खुला रोड है। इसलिए जब भी हवा चलती है तो काफ़ी तेज ठंड लगती है।
सर्दियों के मौसम में मन करता है कि हर वक़्त गरम-गरम चाय मिले। इसलिए मैं पास की दुकान से सर्दी में तीन टाइम की चाय मँगवाती हूँ। अब तो इस काम को करते-करते चालीस साल हो चुके हैं। पर इन चालीस सालों में मुझे कई परेशानियों का सामना करना पड़ा है। बच्चों की परवरिश और घर ख़र्च के लिए यह काम मैं करना नहीं छोड़ी। मुझे इस काम में काफ़ी ज़्यादा मन भी लगता है। और मैं चाहती हूँ कि आने वाले वक़्त में भी इस काम को जिंदा रख सकूँ।

