मेहनत की रौशनी/ रिया

सुधा बिजली का काम करती हैं। 2017 से उनकी दुकान खुली है। पहले उनका लड़का दुकान सँभालता था। दुकान से उसका काम नहीं चल रहा था तो उनके लड़के ने सोचा क्यों ना मैं बाहर जाकर कोई नौकरी कर लूँ। उसने कुछ दिनों तक नौकरी भी ढूँढ़ी। अब उसकी नौकरी लग गई तो वह काम पर जाने लगा और सुधा दुकान चलाने लगी।

जब बेटे की छुट्टी होती तब वह भी दुकान पर बैठ जाया करता था। उनकी दुकान में सारा सामान बिजली का ही था। उसके साथ ही उन्होंने कुछ गुटके भी अपने दुकान पर टाँग रखे थे ताकि आते-जाते लोग उसकी दुकान पर आएँ  और उनका यह माल भी बिक जाए।

उनकी दुकान रोड के किनारे है। वह दुकान नहीं दरअसल लकड़ी का बना खोका है। वह ऊपर से काली तिरपाल से ढका हुआ है। अगर हम आठ नंबर ब्लॉक खिचड़ीपुर से आते हैं तो इस दुकान से पहले पुरुष शौचालय है, जो दुकान से सटा हुआ है, उस शौचालय की तीखी बदबू से दुकान पर खड़े होना मुश्किल है। फिर भी सुधा को वहाँ बैठना पडता है। दुकान के दूसरी तरफ़ धोबीघाट है, जहाँ पर खंभों से लगे तारों पर हर जगह कपड़े सूखते रहते हैं। यहाँ पर सर्फ़ और केमिकल की महक हवा के साथ नाक में घुस जाती है। गर.. गर.. गर करती कपड़े धोने की मशीनों की आवाज़, दिमाग़ी तौर से परेशान कर देती है जिससे यहाँ बैठकर समय काटना मुश्किल हो जाता है।

बरसात के दिनों में वहाँ से पानी टपकता ही रहता है। उन्हें बारिश के मौसम में बहुत तकलीफ़ होती है। बारिश के मौसम में दुकान के आगे भी गंदा पानी भर जाता है। अगर पूरे दिन तेज़ बारिश हुई तो वह दुकान भी नहीं खोल पाती। दुकान में पानी टपकने से गुटके भी गीले हो जाते हैं।

वो बताती हैं कि मेरा बेटा संडे को ही सारा सामान लाता है। अगर कुछ सामान ख़त्म हो जाता है तब हम एक-दो दिनों के लिए अपना खोखा बंद कर देते हैं। अब तो बिजली का भी काम कम होने लगा है जिस कारण कम पैसे बचते हैं। कभी-कभी तो पैसे बचते भी नहीं है। एक बार तो पाँच रुपये तक की भी बोहनी नहीं हुई थी। गुटका तक ख़रीदने कोई नहीं आया था। बिजली का एक सामान भी नहीं बिका। मैं बहुत उदास हो गई क्योंकि घर में सब्ज़ी भी लानी थी। मैं सोचने लगी दुकान तो मैंने बेकार ही खोल दिया है। इस दुकान से तो कभी-कभी ही आमदनी होती है। उदास होकर घर लौट गई।

घर पहुँच कर देखा तो आलू की सब्ज़ी बनी हुई थी। जब पूछा कि यह किसने बनाई है और आलू लाने के लिए पैसे किसने दिए? तो मेरी नाती जो मेरे पास ही रहती है वह बोली, नानी यह मैंने बनाई है। घर में और जो आलू पड़े हुए थे मैंने उसकी सब्ज़ी बना दी और कुछ रोटी भी बना दी है। नानी आप खा लीजिए। तुम सारे लोग खा लिए? उसने कहा, ‘हाँ नानी हमने खा लिया है। आप जल्दी से खा लो।’

उन्होंने हाथ-पैर धोए और खाना खाया। फिर बिस्तर पर लेट सोचने लगी पहले कुछ लोग गर्मियों में पंखा, कूलर लेते थे, अब तो लोग उधार के एसी लगवा रहे हैं इसलिए काम और भी नहीं चल रहा है। अगर कोई पंखा ठीक करने के लिए देता है तो उसके पैसे मुझे नहीं मिलते, बस सामान के ही पैसे मिलते हैं, क्योंकि जो ठीक करता है उसे भी पैसे देने पड़ते हैं।

वे कह रही थीं कि दिल्ली की गर्मियों में तो मेरी तबीयत भी ख़राब हो जाती है। दुकान में धूप एकदम सामने से आती है। इसलिए मैं गर्मियों में शाम के टाइम आती हूँ, क्योंकि गर्मियों में शाम के टाइम फिर भी अच्छा लगता है। देरी से दुकान खोलने पर मुझे टेंशन भी रहती है क्योंकि आमदनी कम हो जाती है।

सच तो यह है कि पंखा और कूलर ठीक करवाने कोई आता ही नहीं है। आजकल एसी जो आ गए हैं। यह बात वह बार-बार दोहराए जा रही थीं।  तभी उनका मोबाइल बजा। फ़ोन उनकी बड़ी बहन का था। वह उनसे बात करने लगी।

 

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