मुश्किलों का डटकर सामना /दीपांशी

लक्ष्मी,  9 नंबर खिचड़ीपुर में अपनी दुकान, दो खाटों पर लगाती है। इस जगह सुबह से रात तक चहल-पहल रहती है क्योकि नौ नंबर  की मार्किट यहाँ से थोड़ी दूरी पर ही है। सामने ही फल और सब्ज़ियों की रेहडियाँ लगती है। यहाँ से पाँच मिनट पैदल चलते ही कल्याणपुरी बस-स्टैंड पहुँच जाते हैं। खिचड़ीपुर का अपना कोई बस स्टैंड ही नहीं है। लक्ष्मी अपनी दुकान दो बजे से लेकर रात के नौ बजे तक लगाती है। वह सुबह के आठ बजे से दो बजे तक अपने घर का काम करती है। वह बच्चों को स्कूल छोड़ने और लाने के बाद अपनी दुकान पर जाती है।

कुछ महीने पहले ही उनके पति लकवाग्रस्त हो गए, इस कारण वे काम नहीं करते। अब लक्ष्मी घर और बाहर दोनों का काम सँभालती है। उनके पति लकवा के बाद बोल नहीं पाते, लेकिन दुकान पर आकर साथ बैठते हैं।

 लक्ष्मी हमेशा सूट-सलवार पहनती है और माथे पर छोटी-सी बिंदी लगाए रखती है। चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान रहती है। उस ने बताया कि पहले फैक्ट्री में काम किया करती थी। पूरा महीना काम करने के बाद मालिक की पैसे देने की बारी आती तो लेट हो जाता। उन्हें टाइम पर पैसा नहीं मिलता। उन्होंने दो-तीन फैक्ट्री में काम किया पर उन्हें कहीं भी पैसे टाइम पर नहीं मिलते थे । इसलिए उन्होंने यह जॉब छोड़ ही दिया।

फिर उन्होंने सोचा कि मैं सिलाई कर लूँ चूँकि वो सिलाई जानती थीं। सिलाई करने से मेरे घर का ख़र्चा तो निकलेगा। फिर वह घर पर ही सिलाई का काम करने लगी। वह सिर्फ़ औरतों के  सलवार-सूट और मैक्सी ही सिलती। यह काम करने से उनके शरीर में दर्द होने लगता और वे थक जातीं। वो कहने लगी कि सिलाई का काम बारीकी वाला है। कुछ ही महीने बाद मेरी आँखों में दर्द होने लगा और मुझे धुँधला भी दिखाई देने लगा।

 यह काम उन्होंने दो-तीन सालों तक ही किया। इस तरह कुछ और दिन गुज़र गए। उन्होंने सोचा कि मुझे कुछ काम तो करना होगा नहीं तो घर का ख़र्चा कैसे चलेगा। लक्ष्मी ने अपने घर के पास नौ नंबर में कुछ औरतों को खिलौने और चूड़ियाँ बेचते हुए देखा था। यह देख वह सोचने लगी कि अगर मैं भी इनकी ही तरह चूड़ियाँ या खिलौने बेचूँ तो उन पैसों से मेरा राशन-पानी आ जाएगा। 

उनके पास सिर्फ़ हज़ार रुपये ही थे। जब वे पहली बार सामान लेने गई तो अपनी भांजी को साथ ले गई क्योंकि उन्हें अकेले जाने में डर लग रहा था। उन्हें लगा कि मैं सामान कैसे खरीदूँगी। वे सामान खरीदने सदर मार्केट गई थीं।

हज़ार रुपये का सामान खरीद कर वह घर आ गईं । सामान तो खरीद लिया पर दुकान कैसे लगेगा ये समझ में नहीं आ रहा था। उनके घर के पास एक औरत ने चारपाई के ऊपर सामान रखा था। ये देख वे भी अपने घर से दो चारपाई लेकर आई।

 जब वे चारपाई पर चूड़ियाँ सजा रही थीं तो उन्होंने देखा की कुछ चूड़ियाँ टूटी थीं । उन्होंने सोचा कि इसमें तो मेरा बहुत घाटा होगा, अगर कुछ महीनों तक ऐसे ही चलता रहा । वे चूड़ियाँ लातीं, जिनमें से कुछ चूड़ियाँ टूट जातीं । कभी ज़्यादा चूड़ियाँ बिकती तो कभी कम। लक्ष्मी सामान ख़त्म होने से पहले ही लोगों की ज़रूरत के अनुसार चूड़ियाँ लाती। जब उन्हें लगता कि चूड़ियाँ ख़त्म होने वाली है तो और ले आतीं। अगर कोई नई डिज़ाइन की चूड़ियाँ माँगता तो उसे भी ख़रीदने जाती। कुछ महीनों बाद उन्होंने चूड़ियाँ बेचना बंद कर दिया, क्योंकि इसमें भी नुक़सान हो रहा था, फायदा नहीं।

 कुछ दिन बाद उनके मन में ख़्याल आया कि मैं खिलौने बेचूँ इसलिए उन्होंने खिलौने बेचना शुरू किया। वह सामान सदर बाज़ार से लातीं । खिलौने के कुछ पैकेट आगे लगे थे, कुछ पैकेट साइड में और बचे हुए पैकेट बीच चारपाई के ऊपर रखे हुए थे।

 लक्ष्मी छोटे बच्चों के खिलौने और लड़कियों के लिए लिप-ग्लॉस वगैरह बेचती हैं। उन्होंने कहा कि मुझे दुकान लगाने में एक घंटा लगता है। ये चारपाई जिस पर सामान लगाती हूँ इसे मैं अपने घर से लाई हूँ। मैं इसमें लोहे की जंजीर बाँधकर जाती हूँ। अगर कभी अचानक बारिश आ जाए तो सामान उठाने में दिक्कत आती है। भीग जाए तो खिलौने की पॉलिश उतर जाती है और जंग भी लग जाती है। यह सामान बहुत कम रेट पर बिकता है और कोई जल्दी ख़रीदता भी नहीं है।

 जुलाई-अगस्त के महीने में ऊपर पन्नी लगानी पड़ती है और गर्मियों में धूप से बचाने के लिए चद्दर लगाते हैं। ऐसे मौसमों में मच्छर इतना काटते हैं कि वे बैठने नहीं देते। और अगर मच्छर काट ले तो वहाँ पर फूल भी जाता हैं। धूप के कारण शरीर लाल पड़ जाता है। हम पंखा तो नहीं लगा सकते क्योंकि यहाँ लाइट ही नहीं है। हाथ वाला पंखा लेकर आते हैं, जिससे हाथ में दर्द होता है। अगर सर्दी हो तो कंबल और शॉल ओढ़ लेते हैं। ठंड में सामान भी भीगा-भीगा सा लगता है, हाथ भी सिकुड़ जाते हैं। कभी-कभार तबियत ख़राब होती है तो दुकान नहीं लगाती। दवाई लेती हूँ तब दुकान लगाती हूँ।

लक्ष्मी ने कहा कि जब भी सामान लेने जाती हूँ बस से जाती-आती हूँ। ऑटो रिक्शे के किराए के लिए पैसे नहीं होते। सामान कट्टों में भरकर लाती हैं। बस में भीड़ के कारण दिक़्क़त होती है पर क्या करें ऑटो के लिए तो पैसे ही नहीं होते। अगर अँधेरा होता है तो हम लाइट लगाते हैं जिससे रोशनी आ सके। कभी-कभार आँधी-तूफान के मौसम में सामान उड़ भी जाता है  जिससे हमारा काफ़ी नुक़सान होता है। इसके अलावा कई बार एमसीडी वाले तंग करते हैं कि तुम लोग रोड पर दुकान लगाती हो। वो धमकियाँ देते हैं कि तुम्हारी दुकान हटवा देंगे। इसके कारण हम घबरा जाते हैं पर हमारे कुछ ऐसे साथी हैं जो उनका मुक़ाबला करते हैं। जहाँ पर हम दुकान लगा रहे हैं उसके सामने भी एक दुकान है। अगर सामने वाली दुकान किसी दिन बिक गई तो हमें भी यहाँ से अपनी दुकान उठाना पड़ेगा।

लक्ष्मी ने बताया कि हमने दुकान लॉकडाउन के बाद लगाना शुरू किया था। दुकान लगाते मुझे चार साल हो गए। जितना ज़्यादा सामान बेचने की सोचती हूँ उतना ही कम बिकता है। इसलिए वह सोचती है कि मैं और भी नए-नए सामान लाकर बेचूँ जो लोगों को ज़्यादा पसंद आए ताकि मेरा सामान बिके और मैं कुछ पैसे कमा पाऊँ। तमाम मुश्किलों के बीच लक्ष्मी दुकानदारी कर रही है और मुश्किलों का डटकर सामना कर रही है।

 

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