पटरी बाज़ार- महिला दुकानदार हर रोज़ दिक्कतें, हर रोज़ काम  अनामिका 

काली माता मंदिर के बगल में सरोज प्रेस की दुकान लगाती है। ज़्यादातर लोग उन्हें प्रेसवाली के नाम से जानते हैं।  उनकी आँखों में गहराई है जो दूसरों को अपनी ओर आकर्षित करती है। जब हम उनके पास गए और हमने उनसे बातचीत की तो उन्होंने हमें बताया कि लगभग बाईस साल पहले हमारा ठिया वहाँ था जहाँ मेट्रो बन चुकी है । 

वहाँ रीजनल ट्रेन शुरू हुआ तो रीजनल ट्रेन वालों ने कहा कि अभी तुम यहाँ से दुकान हटा लो। जब मेट्रो बन जाएगी तब हम तुम्हें यहाँ ठिया लगाने देंगे। उस समय दुकान मेरे पति चलाया करते थे। हमने काफ़ी दिनों तक इधर से उधर जाकर ड्यूटी की। जब हमें अपनी दुकान लगाने के लिए जगह नहीं मिली तो हम कुछ दिन तक अपने घर पर ही रहे। कुछ दिनों बाद जब हम अपनी दुकान देखने गए तो देखा कि जहाँ हमारी दुकान थी वहाँ पर अब रीजनल ट्रेन के लिए खुदाई हो चुकी है। जहाँ पर हम ठीये लगाते थे वह भी सारा का सारा तोड़ा जा चुका था।  


पहले हमने अपने ठीये नीम के पेड़ और खंभे की मदद से बाँध रखी थी। नीचे टेबल के ऊपर कपड़े प्रेस करते थे, बगल में नाई की दुकान भी थी। उसके बगल में ही कूड़ादान था जहाँ से हर मौसम में बदबू आती रहती थी। पर अब वहाँ ऐसा कुछ भी नहीं था। उसे देखकर हमारा तो दिल ही टूट गया। हमारे कमाने का एकमात्र साधन वही था। हमने यह बात अपने बच्चों को बताई। हमारे बच्चे कहने लगे मम्मी, मम्मी हम क्या करेंगे? उसके बाद धीरे-धीरे हमारे घर का राशन भी ख़त्म होने लगा। हमने पहले जो कुछ पैसे जोड़ रखे थे उन्हीं से ही घर का ख़र्चा निकल रहा था। 


कुछ दिनों तक तो हमारा गुज़ारा किसी तरह चल गया पर कुछ दिनों बाद मेरे पति का पैर टूट गया। वे चल भी नहीं पाते थे। मेरे पति टेंशन के कारण बीमार हो गए। धीरे-धीरे उनकी तबीयत बिगड़ने लगी, अंतत: उनकी डेथ हो गई। अब हमारे पास कोई भी कमाने वाला नहीं था । मैंने लोगों के घर जाकर कपड़े ला घर में धोने का काम शुरू किया। मैं उन्हें साफ करके वापस कर देती थी। जो पैसे मिलते थे उससे मेरे घर का कुछ राशन पानी आ जाया करता था। एक टेंशन गई नहीं थी कि दूसरी शुरू हो गई। पारिवारिक झंझट के कारण मेरा घर भी नहीं रहा।

अब सिर्फ़ लोगों के कपड़े धोकर भी घर का किराया और राशन पानी का ख़र्चा नहीं निकल रहा था। मैंने सोचा चलो क्यों ना मैं फिर से अपना प्रेसवाला काम शुरू करूँ। मैंने काली माता मंदिर के बगल में जब जगह देखी तो सोचा कि यहीं प्रेस का काम ठीक होगा, यहाँ लोगों की आवाजाही है। 


मैंने देखा कि काली माता मंदिर के बगल में एक छोटा-सा पार्क है उसमें कुछ पेड़-पौधे लगे हुए हैं, जिसकी छाया में गर्मी भी नहीं लगेगी। जहाँ पर रिजनल ट्रेन को आना है वहाँ मोची और नाई ने भी अपना ठिया लगा लिया है। पहले तो मैंने बहुत  सोचा कि मैं यहाँ अपना प्रेस का ठिया लगाऊँ या ना लगाऊँ। दो-चार दिन तक तो मैंने कुछ काम नहीं किया, पर उसके बाद मैंने सोचा जब तक कुछ करूँगी नहीं, तब तक क्या होगा इसलिए फिर मैंने अपना काम शुरू कर दिया। 


कुछ दिनों बाद मैंने सोचा कि रोज़-रोज़ प्रेस लानी और ले जानी पड़ती है इससे बढ़िया है कि मेरे पास पुरानी अलमारी जो है उसमें अपनी प्रेस रखकर ताला लगा दूँ। रोज़-रोज़ लाने-ले जाने का यह चक्कर ख़त्म हो जाएगा। इसलिए उस दिन अलमारी ला मैंने प्रेस उसके अंदर रख दी।  


अगले दिन जब मैं वहाँ गई तो उसका ताला टूटा पड़ा था और प्रेस ग़ायब। मैं समझ गई कि प्रेस चोरी चली गई। उस दिन मैं बहुत रोई, पर रोने से कुछ होने वाला नहीं था। इतने सारे कपड़े थे जो कि मुझे प्रेस करने थे और मैं सोच रही थी कि अब मैं कैसे प्रेस करूँगी, कपड़े तो ग्राहक को चाहिए होंगे। इसलिए मैंने लोगों से कुछ पैसे उधार माँग कर नई प्रेस ख़रीदी।

पहले काम के लिए कोयला सस्ता मिल जाया करता था पर अब तो कोयला काफ़ी महँगा हो गया है। मैं हमेशा तीन नंबर स्टॉल से कोयला लेकर आती हूँ । उम्र बढ़ती जा रही है। इतना भारी प्रेस चलाते-चलाते हमारे गर्दन में भी दर्द हो रहता है। खड़े-खड़े पैर में भी दर्द हो जाता है। पहले तो सिर्फ़ दर्द था जो दवाई खाने से ख़त्म हो जाता था, अब तो पैरों में सूजन आ गई है। मैं बार-बार डॉक्टर को दिखाती हूँ और दवाई लेती रहती हूँ । पर तब भी यह सूजन जाती ही नहीं, डॉक्टर ने कहा है कि यह खड़े होने से होता है। मैं रोज़ सोचती हूँ कि यह काम बंद कर दूँ क्योंकि यह खड़े होने का काम है, बैठकर तो यह होता नहीं है फिर मैं सोचती हूँ कि गुज़ारा कैसे होगा।

आजकल सर्दी का मौसम है। बिल्कुल ही काम नहीं चल रहा। सर्दी के मौसम में भी सामने से जो हवा आती है और उसके साथ बदबू भी आती है । काम ज़्यादातर तब चलता है जब शादी-ब्याह का रहता है या फिर त्योहार का माहौल, क्योंकि इन दिनों लोग ज़्यादातर प्रेस किए हुए कपड़े ही पहनते हैं। 

बरसात के समय में यहाँ पर ऊपर से पानी टपकता है इसलिए तिरपाल लगाने पड़ते हैं। गर्मी के लिए क्या कहूँ। लू की वजह से पूरा मुँह लाल हो जाता है। ऊपर से गर्म प्रेस पकड़ने से हाथ भी लाल हो जाता है, उसकी वजह से कपड़े से प्रेस को पकड़ना पड़ता है। डर लगता है कि कहीं किसी का कपड़ा जल न जाए, जल गया तो कहाँ से लाकर देंगे। 

सरोज जी कहती हैं कि मैं अपनी दुकान सुबह बारह बजे खोल देती हूँ और शाम छह बजे बंद करती हूँ। पर हाँ! कमरे का किराया और घर का राशन पानी के लिए पैसे तो निकल ही जाते हैं, किसी से माँगने नहीं पड़ते। रोज़ की दिक़्क़तों से मन और देह थक भी जाते हैं, पर काम जारी रखे हुए हूँ ।

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