काम की जगहें

प्रभा

सुबह से ये पाँचवीं बार था जब दोस्तों से प्रभा कॉल करके यह कह चुकी थी कि जब कोई जॉब मिले तो उसे बता दें। उसका मानना है कि अगर घर बैठे बाहर की कोई जानकारी लेनी हो तो दोस्त से अच्छा बिचौलिया कोई हो ही नहीं सकता। उसे शादी के बाद अब महीनों हो गए है घर से बाहर निकले वह कभी भी इतने समय तक घर में यूँ निठल्ली नहीं बैठी है जैसे शादी के बाद अब उसे बैठना पड़ रहा है। आखिर घर का काम भी रोज़ कहाँ तक फैलाया जा सकता है। वो चाहती है कि किसी ना किसी तरह अब तो घर से बाहर निकले।    

उसकी उंगलियों को कंप्यूटर पर टक टक करने की आदत है। हाथ अब चूड़ियों का वजन झेलने को तैयार नहीं है। पैरों ने कई दिनों से जूते की नर्मी को महसूस नहीं किया है और ना ही कानों ने भिन्न उम्र के लोगों की तानाशाही भरी बातें सुनी है। प्रभा घर में बैठी सिर्फ़ फ्रस्ट्रेड होती जा रही है। कई दिन भी हो गए उसे रोड पर खड़े होकर नुक्कड़ वाले शामू के चाय की चुस्की लगाए  फेस-2 की भीड़ में घुसकर फुल प्लेट चिल्लीपोटैटो खाए, जिसकी वो काफी शौकीन रही है।

पहले प्रभा नौकरी कर अलग से जितना भी बचाती थी खुद पर जैसे चाहे खर्च कर लेती थी लेकिन अब वह सिर्फ़ ज़रूरत भर के पैसे लेने के लिए भी अभिषेक की आदी हो चुकी है। और अभि भी काफी टाइम से पैसों को लेकर हिसाब किताब से अलग उसे कुछ नहीं दे पा रहा है। घर खर्च अब बढ़ते जा रहे हैं। प्रीति (प्रभा की ननद) अब सयानी हो गईं है। माँ की बीपी और शुगर की दवाइयाँ भी अब महँगी हो गईं है। घर के बड़े यानी प्रभा के कुंवारे जेठ आए दिन स्टूडेंट्स के लिए मिलती सैलरी से कभी स्पोर्ट्स का सामान ले आते तो कभी, स्टूडेंट्स की इंजरिस में उनका पैसा चला जाता।

पलंग पर बैठे प्रभा ये सोच ही रही थी कि साइड मे पड़ा फ़ोन ज़ोर से घनघना उठा। कॉल पर मोना डार्लिंग लिखा था जिसने सुबह ही प्रभा से कहा कि दोपहर तक वह कोई- ना- कोई जुगाड़ कर देगी पक्की गारंटी और फुल सेफ़्टी के साथ हेलो!  'हाँ’  मोना बात हुई।

'हाँ ' बिल्कुल' ‘हाँ आता है! ठीक है कर लूँगी’  इटरव्यू का क्या चक्कर होगा "क्या-क्या कागजात लगेंगे?"  'ठीक है ' कितने बजे आना है ?' टू टू टू.... शायद कुछ बात बनी है साथ में बैठी सास उसे देखते हुऐ सोचने लगीं घर में उन दोनों के अलावा कोई नहीं था। जेठ जी स्कूल की छुट्टी के बाद सीधा कंपलेक्स चले जाते हैं। प्रीति अपनी इंग्लिश कोचिंग में पूरा दिन बिता लेती है और अभी वह लक्ष्मी नगर कॉफी कैफे में पीयून का काम करते हैं इसलिए वह भी सुबह जल्दी ही घर से रवाना हो जाते है, घर में ना ही कोई स्मार्टफोन है और ना ही टीवी जिसमें मनपसंद का कोई नाटक देख सके या थोड़ी देर गाने भी सुन ले। एक की-पैड है जो पहले सास का हुआ करता था, अब बहू का है।

मोना तू तो ग्रेट है, जब यह कहते हुए प्रभा ने फ़ोन कान से दूर किया तो मोना की स्मृति उसके ज़ेहन में घर करने लगी। मोना बचपन से ही प्रभा की पड़ोसन होने के साथ साथ अच्छी दोस्त रहीं है। वो जबसे टॉम बॉय बनी तब से उसकी लड़कों में लड़कियों से ज़्यादा जान-पहचान बढ़ गई जिसकी दोस्त रहने से प्रभा को भी काफी लोग आते जाते नमस्ते कहके इज्जत देते है, बोले तो पूरे स्वैग में, पूरी इज्जत के साथ। चंद्रमा (प्रभा की सास) भी जानती थी कि प्रभा घर में बैठने वाली लड़कियों में से नहीं है। शादी से पहले भी चंद्रमा ने प्रभा को नौकरी पर जाते अक्सर देखा था। पास आकर चंद्रमा ने बडे हौले से कहा " कुछ बात बनी।

प्रभा ने आँखें फैलाते हुए हाँ कर दिया। चलो बढ़िया है, अब घर में दोनों आदमियों का हाथ बँट जाएगा। चंद्रमा ने तसल्ली दी पर वो..... प्रभा ने गहराई से कहा।

बहु तुम्हें इस नई नौकरी पर जाना है तो चले जाना अभिषेक को मैं मना लूँगी। अब सारी बात अभिषेक के पलड़े में थी। प्रभा को ये कतई नहीं पता था कि शादी के बाद अभिषेक उसे नौकरी नहीं करने देगा। जब से अभिषेक ज़िम्मेदार बना है वह थोड़ा रूड और गुस्सैल होने लगा है । वो अक्सर इस बात को कहता है कि माहौल खराब हो चुका है। तुम्हारा बाहर निकलना ठीक नहीं।  शादी के बाद कई बार अभिषेक प्रभा को नौकरी पर जाने से रोक चुका है और चन्द्रमा को इस बात का बखूबी अंदाजा था कि अभिषेक इस बार भी नाका नुकी करेगा जिस तरह पहले रिसेप्शनिस्ट की नौकरी के लिए प्रभा को ‘कतई नहीं जाना’ कहकर बहुत गुस्सा दिखाया था ।

अभिषेक हर जगह को एक नज़रिए से देखता है। रिसेप्शनिस्ट की जॉब में लड़के लड़कियों के काउंटर पर ही खड़े रहते हैं।  बत्तमीजी करते हैं। जॉब की वजह से लड़कियाँ कुछ नहीं कर पाती। अभिषेक ने जब से बाहर निकलना शुरू किया है वह माहौल को लेकर या माहौल देखते हुए आए दिन प्रीति पर भी रोक-टोक रखने लगा है लेकिन प्रभा भी कम नहीं उसने अच्छे अच्छो की छुट्टी की है। प्रभा ने काफी बार अपनी आवाज़ के दम पर लड़कों को कॉल सेंटर से भी निकलवाया है। अब चाहे किसी ने लड़की  को छेड़ा हो या खुद को लड़कियो से बड़े होने का दम दिखाया हो। इसी के चलते चंद्रमा भी प्रभा की पक्की सपोर्टर है। उन्होने भी प्रभा के ये कई किस्से सुने हैं, इसलिए अभिषेक को बताना अभी ठीक नहीं है, यह सोचते हुए उसने अपना बड़प्पन दिखाया।  "वैसे काम क्या है?" चंद्रमा ने सवाल किया

काम? उन्होने ऑर्डर रिसीवर का बताया है, बाकी जानकारी तो मैं कल जाकर पता कर लूँगी। प्रभा ने झटपट जवाब दिया। उन्होंने अभी सिर्फ़ इंटरव्यू के लिए बुलाया है और इतनी ही बात करते हुए दोनों रोजाना के कामों में लग गई।

अगली सुबह सन्नाटे में जब तकिया के नीचे रखा फ़ोन तेजी से बजा तो प्रभा कुछ इस कदर झुनझुना कर उठी जैसे उसने कोई बुरा सपना देख लिया हो - हे भगवान!"  बिखरे बाल, आँखें रात की नींद में बिंधि हुई थी। अभी अंधेरा बना हुआ था। समय पाँच तीस का हुआ होगा। अलार्म इसलिए जल्दी लगाया ताकि वो मोना की बताई नौकरी पर पहुँच सके। उसने उठकर सबसे पहले सारा काम निपटाया। सब नाश्ता पानी करके निपट गए। घर फिर रोज़ाना के रुटीन में बदल गया, मतलब ख़ाली हो गया।

आज सुबह से ही प्रभा के चेहरे पर मुस्कान दमक कर दिखाई दे रही थी। अलमारी से कपड़े निकालते वक़्त उसके मन में आया कि माँ को भी साथ ले चलती हूँ, थोड़ा घूम आएँगी। वो बोली- "माँ आपके भी कपड़े निकाल दूँ, चलोगी मेरे साथ।"  माँ उस वक़्त  अपनी रोज़ाना की दवाओं को देखते हुए खाने या छोड़ देने की सोच में खोई थी।

‘क्यों! तुम अकेले नहीं जा पाओगी? पहले तो अकेली कही भी पहुँच जाती थीं।’  माँ ने मस्करी में बात घुमा दी और प्रभा को देखते हुऐ मोटी छोटी चारों गोलियों को गले से उतार लिया। प्रभा तुम जाओ मैं बुढ़िया हो चुकी हूँ, ज़्यादा चल नहीं पाऊँगी। उन्होंने अपने घुटने पकड़ लिए। प्रभा ने ठाठ से जवाब दिया  "मम्मी मैं हूँ न! आराम से ले जाऊँगी आपको। आप तो मेरी गुड़िया हो।"  फिर दोनों सास-बहू ज़ोर से हँसे।  "नहीं-नहीं, बहू तुम जाओ। देख आओ दूर है पास है जैसा भी है आकर बताना। 

‘आदित्य मॉल बीकानेर शॉप’ इंदिरापुरम , रोड के पास ही है। कैसे! कहाँ? किससे जाना है? मोना ने सब बता दिया था। वो कहीं  ओर भी काम करती है इसलिए साथ नहीं चल पाई।

नया खरीदा चिकनकारी सूट पहने प्रभा निकल गई एक और नई नौकरी की तलाश में। हाथ में एक छोटी सी फाइल थी जिसमें  काफी टाइम से प्रभा ने सारे आईडी प्रूफ, सर्टिफिकेट संभाल कर रखे हुए थे। कमर से लिपटे बैग में फ़ाइल डाली। कुछ पैसे भी साथ ले लिए जो उसने काफी टाइम से बचा बचा कर जोड़े थे। और एक वही की-पैड जिसमें कल ही बैलेंस डलवा लिया था। सब बढ़िया ही होगा! प्रभा ने खुदको दिलासा दिया।

गली में उतरते ही लड़के टुकटुकी लगाए उसे घूरने लगे। उसका पल्लू नाक से भी नीचे था पर उसकी नज़रें बारीक-सी चुन्नी के भीतर से सबको देख रही थी। यह ताऊ है जो अक्सर गुजरते हुए भगोड़ा शादी का ताना अभिषेक को बातों-बातों में कस देते हैं। ये चाचा जिनकी चुगलियाँ लड़कियों से भी ज़्यादा आस-पड़ोस में फैल जाती है। यह उनके बच्चे जिनकी रोड पर फॉर्चून की दुकान सिर्फ इस मकसद के लिए है कि लड़कियों को आते जाते देख कर आँखें सेंक सकें।

प्रभा को नीचे उतरता देख सबका मुँह मानो या तो टेढ़ा हो गया या अकड़ जाता। इस शादी को घर में अभी तक कई लोगों ने एक्सेप्ट नहीं किया है। उन लोगों के नज़रिए से अभि ने परिवार की नाक काट दी है। इन लोगों की नज़रों में रहना बहुत मुश्किल होता अगर प्रभा कोई कमसिन लड़की होती। उनको नज़रअंदाज़ करते हुए प्रभा टाइम पर गौर करते हुए आगे बढ़ी। आगे पड़ोस के कुछ मनचले लड़के मिल गए। जो इसी आस में बाहर गर्मी हो या सर्दी चौबारे पर बैठे रहते हैं कि कोई सुंदर लड़की इन्हें  स्माइल देती हुई निकल जायेगी या कोई सीधी साधी इन्हें इग्नोर करके। प्रभा की दोस्त मोना भी कभी इन लड़कों में बैठा करती थी और जान कर अक्सर प्रभा को ही छेड़ देती थी। ये बातें प्रभा आज हद से ज़्यादा याद करती है। प्रभा कुछ बड़बड़ा ही रही थी कि सामने से बुआ सास आती दिखाई पड़ी । 

"अरे प्रभा ललि कहाँ चली?" अपनी खुश्क आवाज़ में बुआ ने मिठास भरी?  ‘हम तो चले परदेस हम परदेसी हो गए’ इसी संगीत के साथ प्रभा ने बुआ से मस्करी की -अरे बुआ वो नौकरी के लिए बात करने जा रही हूँ। क्या करूँ घर में बैठा ही नहीं जाता। अच्छा अच्छा लल्ली, जीते रहो।  मिल जायेगी नौकरी। एक दूसरे को स्माइल देते हुए प्रभा आगे रास्ते पर निकल गई । इन रास्तों पर प्रभा बचपन से ही चलती आई है लेकिन एक लड़की की तरह। बहू बनकर वो कई दिनों बाद घर से बाहर निकली है, चेहरे पर वही नूर और चाल में एक अलग ही टशन था। 

दीदी नमस्ते! कैसी हो बड़े दिनों बाद? और सात नंबर पहुँचते ही प्रभा को मोना का चेला छोटू मिल गया। हाल-चाल जान दोनों अपने अपने रास्ते निकल गए । प्रभा इत्मीनान से बात तो करती लेकिन टाइम कम था इसलिए जल्दी ही रास्ते में आते सभी भाइयों को नमस्ते का जवाब देते हुए आगे निकलती चली गईं । प्रभा के घर से निकलने से हाईवे पहुँचने तक कई लोग कई नज़रों से उसे देखते हैं। किसी की नज़रों में वो दीदी होती तो किसी की नज़रों  में माँ-बाप की नाक कटवा देने वाली बिगड़ी हुई औलाद, और इनमें सबसे ज़्यादा वो लोग हैं जो पहले प्रभा को ये कहा करते थे कि ये लड़की अपने घर की सबसे समझदार लडकी है।  घर-बार को देखकर चलती है।

अब उन लोगो में प्रभा को देखते ही खुसफुसाहटें शुरू हो जाती हैं। वो कभी उसे घूरते हुए जाते तो कभी इग्नोर करके लेकिन प्रभा उन लोगों में से नहीं जिसे इस बात का फ़र्क पड़ता हो कि लोग उसे कैसी नज़रों से देखते हैं। ये उन लोगों में से है कि तुम मुझे किसी भी नज़रों से देखो ‘आई डोंट केयर’।  वो सही है तो वो क्यूँ किसी के नज़रिए से खुद को जज करे।

प्रभा को खुद के लिए घर से बाहर निकल कर कुछ करने की चाह शुरू से रही है। सफ़र चाहे कितना ही छोटा हो या बड़ा सफर करना, काम करना उसे अच्छा लगता है। सफ़र करते हुए कुछ खाने-पीने की तमन्ना उसे बचपन से है। यह छोटी-छोटी चीज़ें हैं जो प्रभा एक नौकरी के साथ करना चाहती है, और करती भी आई है । रोड पर अकेले खड़े होकर गोलगप्पें खाना, एक ऐसी जगह रुकना जहाँ से सूरज की आखिरी लालिमा देखने को मिले। हाईवे के फुटपाथ पर पैदल चलना वो भी जूते या सैंडल उतारकर बोले तो वो एकदम फिल्मी है। बेफिक्री है पर घरबार की फ़िक्र की बात आए तो उससे ज़्यादा जिम्मेदारी शायद ही घर में कोई लेता हो। प्रभा जितना इन सब चीज़ों के बारे में सोचती मन ही मन एक बुदबुदाहट सी उठती और असंतोष में बदल जाती। 

NH 24, हाईवे एरिया होने की वजह से प्रभा को ज़्यादा खड़ा नहीं होना पड़ा।  8 ब्लॉक के कुछ ही दूरी पर काफी ऑटो लाइन से वहाँ ऑलरेडी खड़े थे, बस उसने हाईवे को क्रॉस किया और ₹40 का ऑटो कर प्रभा निकल पड़ी अपने सफ़र की ओर। एक खुशी और थोड़ा सा सासू माँ दिया हुआ हौसला लेकर, नई नौकरी की तलाश में निकल पड़ी। 

-नंदिनी

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